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Parag Desai Success Story: पराग देसाई की सफलता की कहानी, हालहि में कुत्ते ने ले ली उनकी जान

 
Parag Desai Success Story: पराग देसाई की सफलता की कहानी, हालहि में कुत्ते ने ले ली उनकी जान
Parag Desai : आज से नहीं बल्की बहुत पहले से ही पराग देसाई (Parag Desai Success Story)का परिवार चाय का करोबार करता आया है। उनके दादा पड़ दादा भी यही काम किया करते थे। पिछली 4 पिढ़ीयों से चला आ रहा उनका ये काम। आग चलकर जिसने वाघ बकरी की शुरूआत हुई। हालही में वाघ बकरी चाय कंपनी के मालिक पराग देसाई की कुत्ते के काटने से जान चली गई। Dainik Haryana News: Wagh Bakri Tea Parag Desai (नई दिल्ली): पराग देसाई के जुड़ने से पहले इसकी शुरूआत हुई। उनके दादा पड़ दादा ने पहले चाय का कारोबार शुरू किया। साल 1980 तक ऐसे ही खुली चाय बेचते थे। उनके पर दादा जी खुली बेचते थे, इसके बाद 1980 में कंपनी ने एक बड़ा फैसला लिया और पैक्ड चाय की शुरूआत की। इसके बाद अगले 5 से 7 साल चाय कंपनी के बेहद खराब चले। इसका सबसे बड़ा कारण था लोगों का जागरूक ना होना। इसके बाद ऐसे ही मुश्किल समय चलता रहा और 7 साल बाद लोगों की मानसीकता में बदलाव आने लगा। लोग पैकड़ चाय पर अपना रूझान दिखाने लगे। Read Also: Milk Benefits : दूध में मिलाएं ये एक चीज, नहीं होगी सेहत से संबंधित कोई परेशानी इसक बाद धीरे धीरे लोगों कों वाघ बकरी चाय पर विश्वास होने लगा और कंपनी की सेल बढ़ने लगी। वहां से ही सही शुरूआत हुई वाघ बकरी चाय की

1995 में जुड़े थे पराग देसाई कंपनी के साथ

पराग देसाई न्यूयॉर्क से एमबीए करने के बाद अपनी कंपनी के साथ जुड़ गए। इस समय कंपनी का कारोबार 100 करोड़ के करीब ही था। पराग देसाई ने मेहनत कर नए बदलाव से आनी कंपनी को शिखर दिखाया। आज वाघ बकरी चाय कंपनी का कारोबार 2000 करोड़ तक पहुंच चुका है।

कुत्ते के काटने से हुई मौत

एक सप्ताह पहले जब पराग देसाई सुबह की वाक करने के लिए निकले तो एक कुत्ते ने उनको काट लिया था। कुत्ते से बचने बचाने के चक्कर में उनके सर पर चोट आई। इसके बाद से ही पराग देसाई अस्पताल में भर्ती थे। एक सप्ताह अस्पताल में रहते हुए 49 साल के पराग देशांई की मौत हो गई। Read Also: Post Office Scheme : पोस्टऑफिस की दमदार स्कीम, महज ही निवेश में हर माह मिल रहे इतने पैसे

1915 में भारत आया था उनका परिवार

पराग देसाई के पर दादा जी के साउथ अफ्रीका में चाय के बागान थे। अफ्रीका में उनके दादा को रंग भेद का सामना करना पड़ा और वो 1915 में भारत आए। इसके बाद से ही शुरू हुआ था उनके चाय का कारोबार।